दूर कहीं से आयी थी चिड़िया
आंगन महकाई थी चिड़िया
चीं चीं करके, फुदक फुदक के
फूलो पर छाई थी वो चिड़िया
पर उस चेहक में , उस केहक में,
कहीं दूर एक दर्द छिपा था,
नासूर सा मर्ज छिपा था,
देख के झट में जान गया था ,
उसको अपना मान गया था।
मैंने उसको गले लगाया
नीड़ में अपने उसे सजाया
कटे फटे घायल पंखों को
सपनो से बुनकर दिखाया
धीरे धीरे घावों को भरके
उसने पंख पसार लिए थे
जमीन अपनी को छोड़ कर
कुछ एक उड़ान मार लिए थे.
उड़ते देख अच्छा लगता था
पर कहीं ये दिल डरता था
कहीं गिरे ना, कहीं टूटे ना
सोच सोच कर में मरता था
क्यूँ?
क्यूकि,
उसको अपना मान चुका था
छोटी छोटी उन आँखो में
में ही हूँ ये जान चुका था
इसी भ्रम में इसी क्रम में
चिडि़या कुछ कुछ बड़ी हो गयी
लंगड़ाती सी चलती थी जो
तनकर पैरो पर खड़ी हो गयी
जाने उन पैरों ने क्या किया था
कद उसका कुछ bad सा gya tha
पर जैसे उसका कद था बड़ा
पर कहीं एक राज छिपा था
दिल में उसके बाज छुपा था
सपने देखा करती जिसके
उसका वो सरताज छुपा था
फिर एक दिन ऐसा भी आया
थी जो मेरी प्यारी चिडिया
मान लिया जिसको गुड़िया
उसने बड़ी सी अंगड़ाई ली
. . .
. .
.
शेष है ,,
Comments
Post a Comment