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KaviRaja, ab Kavita Chodo

कविराजा , कविता के मत अब कान मरोडो युहीं ऐसे उसकी तुम अब नाक का तोड़ो धंधे कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो। शब्दों का जंजाल बड़ा लफड़ा होता है गर कह दो कुछ बात, बड़ा झगड़ा होता है , शेष है
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चिड़िया

दूर कहीं से आयी थी चिड़िया आंगन महकाई थी चिड़िया चीं चीं करके, फुदक फुदक के फूलो पर छाई थी वो चिड़िया पर उस चेहक में , उस केहक में, कहीं दूर एक दर्द छिपा था, नासूर सा मर्ज छिपा था, देख के झट में जान गया था , उसको अपना मान गया था। मैंने उसको गले लगाया नीड़ में अपने उसे सजाया कटे फटे घायल पंखों को सपनो से बुनकर दिखाया धीरे धीरे घावों को भरके उसने पंख पसार लिए थे जमीन अपनी को छोड़ कर कुछ एक उड़ान मार लिए थे. उड़ते देख अच्छा लगता था पर कहीं ये दिल डरता था कहीं गिरे ना, कहीं टूटे ना सोच सोच कर में मरता था क्यूँ? क्यूकि, उसको अपना मान चुका था छोटी छोटी उन आँखो में में ही हूँ ये जान चुका था इसी भ्रम में इसी क्रम में चिडि़या कुछ कुछ बड़ी हो गयी लंगड़ाती सी चलती थी जो तनकर पैरो पर खड़ी हो गयी जाने उन पैरों ने क्या किया था कद उसका कुछ bad सा gya tha पर जैसे उसका कद था बड़ा पर कहीं एक राज छिपा था दिल में उसके बाज छुपा था  सपने देखा करती जिसके उसका वो सरताज छुपा था  फिर एक दिन ऐसा भी आया थी जो मेरी प्यारी चिडिया मान लिया जिसको गुड़िया उसने बड़ी सी अंगड़ाई ली . . . . . . शेष है ,,

सवाल

मेरे कुछ सवाल हैं जो सिर्फ क़यामत के रोज़ पूछूंगा तुमसे क्योंकि उसके पहले तुम्हारी और मेरी बात हो सके इस लायक नहीं हो तुम। मैं जानना चाहता हूँ, क्या रकीब के साथ भी चलते हुए शाम को यूं हीे बेखयाली में उसके साथ भी हाथ टकरा जाता है तुम्हारा, क्या अपनी छोटी ऊँगली से उसका भी हाथ थाम लिया करती हो क्या वैसे ही जैसे मेरा थामा करती थीं क्या बता दीं बचपन की सारी कहानियां तुमने उसको जैसे मुझको रात रात भर बैठ कर सुनाई थी तुमने क्या तुमने बताया उसको कि पांच के आगे की हिंदी की गिनती आती नहीं तुमको वो सारी तस्वीरें जो तुम्हारे पापा के साथ, तुम्हारे भाई के साथ की थी, जिनमे तुम बड़ी प्यारी लगीं, क्या उसे भी दिखा दी तुमने ये कुछ सवाल हैं जो सिर्फ क़यामत के रोज़ पूँछूगा तुमसे क्योंकि उसके पहले तुम्हारी और मेरी बात हो सके इस लायक नहीं हो तुम मैं पूंछना चाहता हूँ कि क्या वो भी जब घर छोड़ने आता है तुमको तो सीढ़ियों पर आँखें मीच कर क्या मेरी ही तरह उसके भी सामने माथा आगे कर देती हो तुम वैसे ही, जैसे मेरे सामने किया करतीं थीं सर्द रातों में, बंद कमरों में क्या वो भी मेरी तरह तुम्हारी नंगी पीठ पर अपनी उँगलियों से हर

वक्त

वक्त की कैद में , जिंदगी है मगर , चंद घड़ियाँ यही हैं  जो आज़ाद हैं  इनको खो कर, मेरे जानेजां, उम्र भर  न तरसते रहो  यूँ तो ये बोल कई बार सुने थे, आज पर, ये समझे गए हैं  हम सभी को इतने काम हैं  के हम सभी वक्त के गुलाम हैं , पर सच कहो, सच सच कहो,  क्या वाकई तुम इतने "बिजी" हो ? खैर  यही चंद चाँद बचे हैं, यही थोड़ा टहलना बचा है, थोड़े से ही मौके हैं, इन्हे खो  दोगे फिर रोओगे , चीखोगे , चिल्लाओगे , हाथ मलोगे पर अफ़सोस अफ़सोस ये कोई समझ न सका और वक्त को भी वो बांध सका, सूखी सी उस शाख के जैसा अकड़ा। और वक़्त की कीमत को कभी न पकड़ा। वो बस यही सोचता रह गया वक्त है अभी , देख लूंगा, कर लूंगा, मिल लूंगा ये कहते सोचते वक़्त बीतते देखता रह गया सोचो सोचो जाने कितना तरसा होगा वो उसी वक़्त के लिए जिसे वो पीछे छोड़ आया था सोचो गर तुम्हे किसी से कुछ हो कहना, कुछ सुनना कुछ पूरा करना या अधूरा करना तो कर दो बस जो भी वक़्त हो जैसा भी, जितना भी खुल कर जिओ इतंजार मत करो क्युकी वक़्त तुम्हारा नहीं करेगा, इंतजार

लौटा दो

वापस कर दो मुझे लौटा दो वो चौथी मंजिल की छत की धूप। जो साथ साथ सेकी थी मेरे। वो दाना पानी की शाम की मीठी सी ठण्ड। मुझे लौटा दो ना वो चश्मे वाले सेठ जी के आगे हल्का हल्का मुस्कुरा देना डरते रहना पर कुछ न कहना वो उस दरिंदे की सुनके इस पगले पर भड़कना वो उस दरिंदे की पीड़ परिंदे पर दिखना लौटा दो वो डायना की खुशबु जिसमें तेरा लिपट कर आना पागल कर जाना वो झुण्ड बना कर बेगानी बनियानी शादी में जाना और वापसी में ठिठुरना। वापस कर दो वो मई की तपती हुई धूप में ऐसे टहलना जैसे बर्फ गिर रही हो. अंगारों से चेहरे का लाल हो जाना हो जाना फिर भी बस चलते जाना गुफ्तगू की बेहोशी में। लौटा दो ना  मुझे। और वो याद है वो ? तुम्हारा पसीना से भीग जाना उस गंध को डायना की गंध से छुपाना छुपाना क्या, छुपाने की बेकार कोशिश करना शायद उस गंध ने ही ये घरोंदा जोड़ रखा था फीकी पड़ती उस गंध को लौटा दो. सरदार ने बड़ी मुश्किल से मंजिल पर पहुंचाया था. तब जाके कैम्बे की छाया जब लेटे थे उबालटी सी बर्फ गिरी थी  न तब तन पर खून ही बह पड़ा था तुम्हारा तो। पहाड़ों में आवाराओं की तरह घूमे थे जब वो

google's new potty internet

You can now use internet through your potty_err i mean toilet commode!.  strange na? let me explain..

chameleon in my office

New Client in My Office Last Sunday when i entered my office, I saw this Mr. "girgit" Resting on my table !!!.I rushed to other room to grab my camera. but when came back, this "Anolis carolinensis" ran away to the door.these days due to heavy rains many creatures can be seen near office.