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Showing posts from January 7, 2018

लौटा दो

वापस कर दो मुझे लौटा दो वो चौथी मंजिल की छत की धूप। जो साथ साथ सेकी थी मेरे। वो दाना पानी की शाम की मीठी सी ठण्ड। मुझे लौटा दो ना वो चश्मे वाले सेठ जी के आगे हल्का हल्का मुस्कुरा देना डरते रहना पर कुछ न कहना वो उस दरिंदे की सुनके इस पगले पर भड़कना वो उस दरिंदे की पीड़ परिंदे पर दिखना लौटा दो वो डायना की खुशबु जिसमें तेरा लिपट कर आना पागल कर जाना वो झुण्ड बना कर बेगानी बनियानी शादी में जाना और वापसी में ठिठुरना। वापस कर दो वो मई की तपती हुई धूप में ऐसे टहलना जैसे बर्फ गिर रही हो. अंगारों से चेहरे का लाल हो जाना हो जाना फिर भी बस चलते जाना गुफ्तगू की बेहोशी में। लौटा दो ना  मुझे। और वो याद है वो ? तुम्हारा पसीना से भीग जाना उस गंध को डायना की गंध से छुपाना छुपाना क्या, छुपाने की बेकार कोशिश करना शायद उस गंध ने ही ये घरोंदा जोड़ रखा था फीकी पड़ती उस गंध को लौटा दो. सरदार ने बड़ी मुश्किल से मंजिल पर पहुंचाया था. तब जाके कैम्बे की छाया जब लेटे थे उबालटी सी बर्फ गिरी थी  न तब तन पर खून ही बह पड़ा था तुम्हारा तो। पहाड़ों में आवाराओं की तरह घूमे थे जब वो